उदर-पेट रोग-वर्णन एवं आयुर्वेदिक उपचार

1 बेनामी

पेट उदर-रोग-वर्णन  उदर-रोगों के निदान-कारण


सब तरह के रोग मदाग्नि से होते बहुत् हि होते हैं; मंदाग्नि से अजिणन पदार्थो के खाने पीने  से, दोषों और मलों के बढ़ने या कोष्ठबद्धता--दस्त की कब्ज़ियत से उदर-रोग--पेट के रोग होते हैं। सभी रोगों का जन्म मंदाग्नि से होता है; यानी अग्नि के we रहने से अनेकानेक रोग होते हैं। इनमें भी पेट के रोग तो मन्दाग्नमि से बहुत ही ज्यादा होते हैं। मंदाग्नि के सिवा, पेट के रोग अजीर्ण से, अत्यन्त हानिकारक खानेपीने के पदार्थों से और पेट में मल के जमा हो जाने से भी होते हैं। अत: आरोग्यता चाहने वाले मनुष्य को ऐसे उपाय करते रहना चाहिये, जिनसे अग्नि कभी भी मंद न हो, अजीर्ण न हो और दस्त की कब्ज्ञियत न हो। 


उदर-रोग की सम्प्राप्ति संचित हुए दोब--पसीना और जल को बहाने वाली नाड़ियों को रोक कर तथा जटराग्रि, प्राणवायु और अपान वायु को बिगाड़ कर, उदर-रोग--पेट के रोग पैदा करते हैं। 


खुलासा--जमा हुए वातादि दोष, पसीना और जल बहाने वाले स्रोतों को रोक देते हैं और जठराग्रि, प्राणवायु तथा अपान वायु को दूषित कर देते हैं। स्रोतों के रुकने तथा जठराग्रि, प्राणवायु और अपान वायु के दूषित होने से पेट में रोग हो जाते हैं। असल बात यह है कि पहले अग्नि मंद होती है; मंदाग्नि होने की वजह से अजीर्ण हो जाता है; अजीर्ण की वजह से शरीर में मल इकट्ठा हो जाता है; मल का संचय  होने से दोष कुपित होकर, जठराग्नि को सर्वथा नष्ट करके, उदर-रोग करते हैं। 


 उदर-रोगों के सामान्य रूप

 नीचे लिखे हुए लक्षण सब तरह के उदर-रोगों--पेट के रोगों में देखे जाते है।


(१) अफारा, (२) चलने में अशक्तता, (३) कमज़ोरी, (४) अग्नि का मन्दापन, (५) सूजन, (६) अंगों में ग्लानि, (७) अपान वायु का न खुलना, (८) मल का रुकना, (९) दाह या जलन होना,


नोट--अफारा, आलस्य, अशक्ति, अंगसाद, मल-रोध, प्यास और दाह-ये सब उदर-रोगों के पूर्वरूप हैं। यानी उदर-रोग होने से पहले ये होते हैं। | उदर-रोगों की संख्या उदर-रोग आठ तरह के होते हैं--(१५) वात से--बातोदर। (२) पित्त से-पित्तोदर। (३) कफ से--कफोदर। (४) सप्निपात से--सप्निपातोदर। (५) प्लीहा से-प्लीहोदर। (६) गुदा के अवरोध से-बद्धगुदोदर। (७) क्षत से--क्षतोदर। (८) पेट में पानी भर जाने से--जलोदर। 


[१] वातोदर के लक्षण--वातोदर रोग में ये लक्षण देखे जाते है।

(१) हाथ, पैर, नाभि और कोख में सृजन होती है। (२) कोख, पसली, पेट, कमर, 

पीठ और सन्धियों में दर्द होता है। (३) सूखी खाँसी चलती है। (४) शरीर टूटता 

है। (५) नाभि से नीचे के शरीर का आधा भाग भारी जान पड़ता है। (६) मलरोध 

होता है; यानी दस्त नहीं होता। (७) चमड़ा, आँख और पेशाब कौर: का रंग लाल होता है। (८) अकस्मात उदर की सूजन घट या बढ़ जाती है। (९) पेट में सूई 

चुभाने की-सी पीड़ा होती है। (१०) काले रंग की सूक्ष्म aa पेट पर छा जाती हैं। 

(११) पेट पर उँगली मारने से फूली मशक की-सी आवाज़ होती है। (१२) दर्द और आवाज़ करती हुई हवा इधर-उधर घूमती है। 

नोट---संक्षेप में, वातोदर रोग होने से हाथ, पैर और नाभि पर सूजन, अंग टूटना, अरुचि और जड़ता--ये लक्षण होते हैं। 


[२) पित्तोदर के लक्षण--पित्तोदर होने से ये लक्षण देखे जाते हैं-(१) ज्वर होता है। (२) मूर्च्छा होती है। (३) दाह या जलन होती है। (४) प्यास लगती है। (५) मुँह का स्वाद कड़वा रहता है। (६) भ्रम होता है। (७) अतिसार या दस्तों का रोग होता है। (८) चमड़ा और आँख का रंग पीला हो जाता है। (९) पेट का रंग हरा हो जाता है। (१०) पेट पर पीली या ताम्बे के रंग की नसें छायी रहती हैं। (११) पेट पर पसीने आते हैं, गरमी से उसमें दाह होता है; भीतर गरमी और बाहर दाह होता है। (१२) आँतों से धुआँ-सा निकलता जान पड़ता है। (१३) छूने से पेट नर्म जान पड़ता है, उसमें पीड़ा होती है। (१४) पित्तोदर जल्दी पक कर जलोदर हो जाता है। 


> नोट--संक्षेप में, पित्तोदर होने से दाह, मद, अतिसार, भ्रम, ज्वर, प्यास और मुख में कड़वापन--ये लक्षण होते हैं। 


[३ ] कफोदर के लक्षण--कफोदर रोग होने से ये लक्षण देखे जाते F(१) शरीर में शिथिलता, (२) शून्यता-स्पर्शज्ञान का अभाव, (३) सूजन, (४) भारीपन, (५) नींद बहुत आना, (६) क्रय होने की इच्छा, (७) अरुचि, (८) श्वास, (९) खाँसी, (१०) चमड़े और नेत्र बगैर का रंग सफेद होना, (११) पेट भोगा-सा, चिकना, सफ़ेद, नसों से व्याप्त, मोटा, कठोर, छूने में शीतल, भारी, अचल और बहुत देर में बढ़ने वाला होता है; यानी कफोदर बहुत देर में बढ़ता है। 


 नोट--संक्षेप में, कफोदर होने से भारीपन, अंगसाद, श्वास, अरुचि, खाँसी, पीनस और सूजन--ये लक्षण होते हैं। 


[४ ] सन्निपातोदर या eater के लक्षण--जिन मनुष्यों को दुष्टा feral वश में करने के लिए नाखून, बाल, मूत्र, मल या ada (रजोधर्म का खून) मिला कर खाने-पीने के पदार्थों में खिला-देती हैं, जिनको दुश्मन ज़हर खिला देते हैं, जो दूषित जल पीते हैं, अथवा जो दूषी विष सेवन करते हैं, उनके रक्त और वातादि तीनों दोष कुपित हो कर अत्यन्त भयानक सन्निपातोदर या दृष्योदर रोग पैदा करते हैं। 


यह उदर रोग शीतकाल में, शीतल हवा चलने के समय, अधिक बादल घिरने के दिन या वर्षा की झड़ी लगने के समय विशेष करके कुपित होता है; क्योंकि इन - समयों में दूषित विष का प्रकोप होता है। मतलब यह है कि ऐसे समयों में यह रोग बढ़ जाता है और दाह होने लगता है। 


इस उदर रोगी के शरीर में दाह होता है। वह निरन्तर बेहोश रहता या बार-बार बेहोश होता है। उसके शरीर का रंग पीला हो जाता है, देह हो जाती है और प्यास के मारे गला सूखा करता है। इस सन्निपातोदर या त्रिदोषज उदर-रोग को ‘ganar’ भी कहते हैं। | 


नोट--परस्पर दूषित हुए दोष भी दृष्य कहाते हैं। इसलिए दृष्य द्वारा हुए उदर-रोग को “दृष्योदर' कहते हैं। खुलासा यह है कि दुष्ट जल--सिवार, ae, पत्तों से खराब हुआ पानी पीने से, दूषी विष के सेवन से, मल-मूत्र रोकने से तथा विष खाने से दुष्ट हुए वातादि रोग सन्निपातोदर रोग करते हैं। 


(५ ] प्लीहोदर के लक्षण--दाहकारक और अभिष्यन्दी अथवा कफ कारक और अम्लपाकी पदार्थ खाने-पीने से रुधिर और कफ अत्यन्त दूषित हो कर, पेट के बाईं तरफ, प्लीहा को बढ़ा कर अत्यन्त वेदना उत्पन्न करते हैं। इसी को '“प्लीहोदर' कहते हैं। 


प्लीहा या यकृत के बढ़ते रहने से जब पेट बहुत बढ़ जाता है, तब सारे शरीर में अवसन्नता,मन्दाग्रि, बलक्षीणता, देह की पाण्डुवर्णत और कफपित्तजनिं अन्यान्य उपद्रव भी होते हैं। इस समय इन रोगों को 'प्लीहोदर या यकृदुदर' कहते हैं। ' घ्लीहोदर होने से पेट का बायाँ भाग बढ़ता है और यकृदुदर होने से पेट का दाहिनं भाग बढ़ता है, क्योंकि प्लीहा पेट के बायें भाग में और यकृत दाहिने भाग में है। 


(5 ) कफ की अधिकता होने से दर्द नहीं होता। शरीर का रंग सफेद होता है, प्लीहा अत्यन्त कठिन, मोटी, बहुत भारी और wea होती है, अथवा शरीर भारी रहता है, अरुचि होती और पेट बड़ा aan रहता है। वायु का प्रकोप Tera रहने से सदा दस्त की क़क्ज्ियत, उदावर्त, आनाह और पेट में ज़ोर का दर्द रहता है। पित्त का कोप अधिक होने से say, प्यास, अधिक पसीने आना, तीव्र बेदना, दाह, मोह और शरीर का रंग पीला--बये लक्षण होते हैं। रुधिर का कोप अधिक होने से ग्लानि, दाह, मोह, शरीर का रंग बदल जाना, शरीर में भारीपन, sete, भ्रम और मूर्च्छा-ये लक्षण होते हैं। जिसमें तीनों दोषों के लक्षण होते हैं, उसे त्रिदोषज प्लीहा रोग कहते हैं। यह असाध्य होता है। 


> नोट--ये लक्षण यकृदुदर और प्लीहोदर दोनों में ही पाये जाते हैं। फर्क इतना ही है कि अगर दाईं तरफ रोग होता है तो यकृदुदर और बाईं तरफ होता है, तो प्लीहोदर कहते हैं। 


[६ ] बद्धगुदोदर के लक्षण--जब मनुष्य की aid अन्न, शाक तथा कमलकन्द आदि चिपटने वाले पदार्थों से अथवा रेत-कंकरी या बालू आदि से अत्यन्त ढक जाती हैं, उस समय वातादि दोषों से नित्य थोड़ा-थोड़ा मल आँतों में उसी तरह जमता जाता है, जिस तरह बुहारी देते समय थोड़ा कूड़ा-कर्कट रह जाता है। ऐसा होने से जमा हुआ मल, गुदा की राह को रोक कर, थोड़ा-थोड़ा मल बड़ी कठिनता से बाहर निकलने देता है। इससे हृदय और नाभि के बीच में पेट बढ़ जाता है। इसको ‘ager’ कहते हैं। । 


खुलासा--इस रोग के होने से बड़ी तकलीफ़ के साथ थोड़ा-थोड़ा मल निकलता है नाभि के बीच में पेट बढ़ जाता है। 


[७] क्षतोदर के लक्षण--अन्न के साथ अथवा और किसी तरह से पेट में रेत, तृण, लकड़ी या काँटे कौर: के चले जाने से आँतें छिद जाती हैं--उनमें घाव हो जाते हैं। फिर उन घावों से पानी जैसा पतला ara होता है और वह गुदा में हो कर बाहर बहता है। नाभि के नीचे का भाग बढ़ जाता है, पेट में सूई छेदने का-सा दर्द होता है और ऐसा जान पड़ता है मानो कोई चीरता है। इसी रोग को ' क्षतोदर ' कहते हैं, क्योंकि इस रोग में आँतों में अल्सर या घाव हो जाते हैं। कितने ही ग्रन्थों में इसे ‘afteraqar’ भी लिखा है; क्योंकि इस रोग में पानी-सा स्राव होता रहता है। 


खुलासा--शल्य, बाण और धातु प्रभूति के भोजन के साथ पेट में जाने से आतें छील या कट जाती हैं। फिर उन छिली हुई या कटी हुई आँतों में से हो कर गुदा द्वारा पतला पानी-सा स्राव होता है और नाभि के नीचे से पेट बढ़ता है। इसे ' क्षतोदर' कहते हैं। tg आने या थोड़ा भोजन करने से काँटे aM: पेट में छिदने लगते हैं-यह भी क्षतोदर की एक पहचान है। 


[८ ] जलोदर के लक्षण--जो मनुष्य Bea करके-घी-तैलादि पी कर, अनुवासन वस्ति-चिकने पदार्थों की पिचकारी ले कर, वमन-विरेचन करके, अथवा Free वस्ति सेवन करके तत्काल शीतल जल पी लेता है, उसकी जलवाही नाड़ियाँ दूषित हो जाती हैं, अथवा उनके चिकनाई लिपट जाती है। फिर उन्हीं दूषित नाड़ियों से पानी टपक-टपक कर पेट में इकट्ठा होता है और इस तरह पेट बढ़ता है। इसको ‘sealer’ या 'जलोदर' नामक जल संचय-जनित उदर-रोग कहते हैं। 


इस रोग में पेट चिकना, बड़ा और चारों तरफ से बहुत ऊँचा होता है। पेट तना हुआ-सा मालूम होता है। पानी की पोट-सी भरी जान पड़ती है। जिस तरह पानी से भरी हुई मशक झलर-झलर हिलती है, उसी तरह पेट हिलता और आवाज़ होती है। इसकी वजह से नाभि के चारों तरफ दर्द होता है। 


 खुलासा--पेट अत्यन्त ऊँचा और चिकना होता है। पानी की पोट-सी भरी मालूम होती है। वह पानी से भरी हुई पखाल की तरह हिलता है, गुड़-गुड़ शब्द और कम्प होता है। इसे 'जलोदर या जलन्धर' कहते हैं। आत्रेय मुनि कहते हैं कि विषम आसन पर बैठने से, बहुत पानी पीने से, मिहनत और राह चलने की पीड से एवं अत्यन्त कसरत करने से पेट पोला हो जाता है और जलोदर रोग हो जाता है। जिसको जलोदर हो जाता है उसके पेट में पानी मालूम होता है, पेट अत्यन्त बढ़ जाता है, आवाज होती है और पैरों में सूजन होती है। 

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उदर-रोगों की साध्यासाध्यता बहुत करके सभी तरह के उदर-रोग कष्टसाध्य होते हैं। रोगी बलवान हो, पेट में पानी पैदा न हुआ हो और रोग हाल का पैदा हुआ हो, तो उपाय करने से नष्ट हो जाते हैं। 


सब तरह के उदर-रोग कष्टसाध्य हैं; विशेषकर जलोदर और क्षतोदर रोग अतिशय कष्टसाध्य हैं। चीर-फाड़ से ही ये आराम हों तो हो सकते हैं; दवा-दारू से आराम होने की आशा बहुत कम है। रोग पुराना होने या रोगी का बल नाश हो जाने से सभी उदर-रोग असाध्य हो जाते हैं। 


 उदर रोगों की सामान्य चिकित्सा 

 समस्त उदर-रोग-नाशक आयुर्वेदिक नुसखे 


 (१) पुनर्नवा, देवदारु, गिलोय, अम्बष्ठा--पाढ़, बेल की जड़, गोखरू, बड़ी कटेरी, छोटी कटेरी, हल्दी, दारुहल्दी, पीपर, चीता और अडूसा--इनको समान-समान लेकर पीस-छान लो। इसमें से चार या छह माशे चूर्ण 'गोमूत्र के साथ” खाने से सब उदर रोग नष्ट हो जाते है।

(२) रैडि का तेल 'गरम दूध या जल अथवा गोमूत्र' में मिला कर पीने से सब तरह के उदर-रोग आराम हो जाते हैं। 

(३) मालकाँगनी का तेल पीने से सब तरह के उदर-रोग नष्ट हो जाते हैं। 

(४) कंकुष्ठ का चूर्ण गरम जल के साथ सेवन करने से आठों तरह के उदररोग नष्ट हो जाते हैं। 

(५) देवदारु, ढाक, आक की जड़, गजपीपर, सहँजना और असगन्ध--इनको गौमूत्र में पीस कर लेप करने से सब तरह के उदर-रोग नष्ट हो जाते हैं। परीक्षित है। 

(६) मुर्दाशंख का चूर्ण 'नागरमोथा के काढ़े ' में मिला कर पीने से आठों तरह के उदर-रोग चले जाते हैं। 

(७) पीपलों को थूहर के दूध में भावना दे कर, उनमें से अपनी शक्ति-अनुसार एक से आरम्भ करके एक हज़ार तक खाने से सब तरह के उदर-रोग नष्ट हो जाते हैं। 

(८) शुद्ध शिलाजीत को “गोमूत्र' में मिला कर पीने से अथवा शुद्ध गूगल को “त्रिफले के काढ़े' में मिला कर काँजी के साथ पीने से सब तरह के उदर रोग नष्ट हो जाते हैं। 

(९) दुर्गन्‍न्ध करंज के बीज, मूली के बीज, गहरेडूबे की जड़ (गवादनी-मूल) और शंख-भस्म को मिला कर काँजी के साथ पीने से जलोदर तक आराम हो जाता है। 

(१०) इंद्रजौ ४ माशे, सुहागा ४ माशे, हींग ४ माशे, शंख भस्म ४ माशे और पीपर ६ माशे--इनको गोमूत्र के साथ पीस कर पीने से सब तरह के उदर-रोग, यहाँ तक कि पुराने उदर-रोग भी नष्ट हो जाते हैं। )

(११) इन्द्रायण, शंखपुष्पी, दन्ती, निशोथ, नीलीवृक्ष, त्रिफला, हल्दी, बआयबिडंग और कबीला--इनका चूर्ण 'गोमूत्र' के साथ पीने से उदर-रोग नष्ट हो जाते हैं।


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धन्यवाद Gk Ayurved




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बेनामी ने कहा…
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