दाह-रोग वर्णन
दाह के सामान्य लक्षण
विविध कारणों से पित्त के कुपित होने से, हाथ-पैरों के तलवे और आँखों में
अथवा सारे शरीर में दाह या जलन होती है। उस दाह या जलन को ही 'दाह-रोग'
कहते हैं।
दाह-रोग की किस्में
दाह-रोग सात तरह का होता है-(१) पित्त का दाह । (२) रुधिर का दाह ।
(३) प्यास रोकने का दाह। (४) रक्तपूर्ण कोटज दाह। (५) मा का दाह।
() धातु-क्षयज दाह । (७) मर्माभिधातज दाह।
पित्त के दाह के लक्षण-दाह गरमी की व्याधि है। पित्त के दाह में, पित्तज्वर के-से लक्षण होते हैं। इसलिये इसकी चिकित्सा भी 'पित्त ज्वर' की तरह ही करनी चाहिये
पित्त चर और दाह में फ़र्क-पित्त ज्वर में, आमाशय के दूषित होने से, ज्वर
और दाह दोनों होते हैं; किन्तु दाह-रोग में केवल दाह ही होता है। अथवा पित्त-ज्वर
में अग्नि और आमाशय दोनों दूषित होते हैं; किन्तु पित्त के दाह में अग्नि और आमाशय
दूषित नहीं होते-केवल जलन होती है; यही भेद है।
रुधिर के दाह के लक्षण-शरीर में खून के बहुत ही ज्यादा बढ़ जाने से भी
दाह होता है; यानी शरीर का खून भी कुपित हो कर दाह-रोग पैदा करता है। ऐसा
होने से रोगी को सारा संसार आग से जलता हुआ-सा मालूम होता है। अथवा ऐसा
जान पड़ता है, मानो आग मेरे पास रखी है और मैं उससे जला जा रहा हूँ। रोगी को
प्यास बहुत लगती है। दोनों आँखें और सारा शरीर ताम्बो के रंग का हो जाता है; यानी
शरीर और नेत्र लाल हो जाते हैं। शरीर और मुंह से ऐसी गन्ध निकलती है जैसी गरम
लोहे पर पानी डालने से निकलती है। शरीर में मानो किसी ने आग लगा दी है, ऐसी
वेदना होती है।
प्यास रोकने के दाह के लक्षण-जो आदमी मूर्खता से प्यास को रोकता है,
उसकी जल-रूप-धातु क्षीण हो जाती है और तेज या पित्त की गरमी शरीर के भीतर
और बाहर दाह-जलन पैदा करती है। उस समय उस आदमी के गला, तालू और
होठ सूख जाते हैं और वह जीभ को निकाल कर हाँफने लगता है।
मतलब यह है कि पानी न पीने से शरीर की पतली धातुएँ क्रमशः कम हो
जाती हैं और गरमी बढ़ती है। गरमी बढ़ने से शरीर के भीतर-बाहर आग-सी लग
जाती है; गला, तालू और होठ सूखने लगते हैं और रोगी कुत्ते की तरह हॉफ्ता और
जीभ को बाहर निकाल देता है।
रक्तपूर्ण कोष्ठज दाह-तलवार, बरछी या भाले वौरह के लगने से आदमी
के शरीर में पाप हो जाते हैं। उन पायों से निकले हुए खून से जिस आदमी का
कोठा भर जाता है, उसके शरीर में महा दुस्तर दाह पैदा होता है।
मतलब यह है कि तलवार आदि से जख्म होने पर, खून से हदय आदि कोठे
भर जाते हैं, तब घोर दुःसह दाह पैदा होता है। इसी से युद्धक्षेत्र के घायल पानी-ही पानी को रटना लगा देते हैं। ऐसे दाह के लक्षण सद्योव्रण के समान होते हैं। अतः
ऐसे दाह की चिकित्सा भी वैसी ही होनी चाहिए।
मध के दाह के लक्षण-गद्यपान करने या शराब पीने से पित्त कुपित हो जाता
है। उस कुपित पित्त की गरमी, पित्त-रक्त को बढ़ा कर, दाह पैदा कर देती है। इस
दाह की चिकित्सा पित्त की जैसी करनी चाहिये।
धातु-शय का दाह-रस-रक्त आदि धातुओं का क्षय होने से भी दाह-रोग
होता है। इस दाह वाला रोगी तृषार्स, मूर्षिछा, क्षीण-स्वर और चेष्टाहीन हो जाता है;
अर्थात् धातुओं का क्षय होने से जो दाह होता है, उसमें रोगी प्यास के मारे विकल हो
उठता है, बेहोश हो आता है, गला बैठ जाता है, आवाज नहीं निकलती और वह
चेष्टा-रहित हो जाता है। इस दाह-वाला अच्छा इलाज न होने से मर जाता है।
मर्माभिधातज दाह के लक्षण-मस्तक या हदय अथवा मूत्राशय आदि
मर्मस्थानों में चोट लगने से जो दाह होता है, वह असाध्य होता है।
» नोट-पित्त से ही दाह होता है, इसलिए जिन रोगों में दाह हो, उनमें
"पित्त की अधिकता' समझनी चाहिये। खून के बढ़ने या कुपित होने से, प्यास के
रोकने से, घाव होने से, शराब पीने से, रक्त-रस आदि धातुओं के कम होने से और
हृदय आदि मर्मस्थानों में चोट लग जाने से दाह होता है। धातुक्षय का दाह खराब होता
है। अच्छा इलाज न होने से रोगी मर जाता है। पर मर्म में चोट लगने से जो दाह होता
है, वह तो असाध्य ही होता है।
" नोट-बंगसेन ने लिखा है, क्षत या भाव होने से जो दाह होता है, उसमें
भूख बहुत कम हो जाती है। जिसे शोक करने से दाह होता है, उसके शरीर के भीतर
बड़ी जलन होती है, तथा प्यास, मूछा और प्रलाप के लक्षण होते हैं।
दाह की असाध्यता
जिस रोगी के शरीर के भीतर दाह हो, पर ऊपर से शरीर शीतल हो, उसका
दाह असाध्य है। उसका इलाज न करना चाहिये। कहा है
दाह-रोग वर्णन
पित्तज्वरसमा कायां चिकित्सा तु भिषग्वरैः ।
वर्जनीया प्रयत्नेन शीतगात्रस्य देहिनः॥
दाह-रोग की चिकित्सा बुद्धिमान वैद्य को पित्त-ज्वर के समान करनी चाहिये,
परन्तु जिसके भीतर दाह हो- भीतर से शरीर जला जाता हो और ऊपर से छूने में शरीर
शीतल हो, उसका इलाज न करना चाहिये।
दाह-चिकित्सा में याद रखने योग्य बातें
(१) दूध और दूध वाले वृक्षों के सुशीतल चन्दन-मिले हुए काढ़े एवं अन्यान्य
शीतल प्रयोगों से अन्तर्दाह या भीतर का दाह शान्त होता है।
(२) चमड़े की गरमी रुकने से शरीर का चमड़ा ठण्डा हो जाता है। ऐसा होने
से शरीर पर 'अगर का लेप' करना चाहिये।
(२) पित्त और खून से बढ़ी हुई शरीर की गरमी, चमड़े में घुस कर, घोर दाह
करती है। इसलिये, उस अवस्था में, पित्त के समान चिकित्सा करनी चाहिये।
(४) शरीर के खून के बढ़ने या कुपित होने से जो दाह होता है, वह घोर दाह
होता है। उससे मनुष्य की आँख लाल और शरीर का चमड़ा ताम्बे के रंग का सा हो
जाता है, तथा देश में आग के-से पतंगे लगते हैं। इस दाह को 'अति दाह' भी कहते
हैं। चूंकि यह दाह खून के बढ़ने से होता है, इसलिए इसमें हाथ या पाँव की 'रोहिणी'
नामक शिरा-नस को खोल कर खून निकालना चाहिये। चन्दन और उशीर को बहुत
से पानी में मिला कर, रोगी को उसमें स्नान कराना चाहिये। अगर रोगी प्यास के मारे
जीभ को बाहर निकाल कर हॉफता हो, गला और होंठ सूखे जाते हों, तो उसे शीतल
पानी अथवा मिश्री, पानी और दूध मिला कर पिलाना चाहिये। ये उपाय इस दाह में
परीक्षित हैं।
खून के कोप से हुए दाह में विधिपूर्वक लंघन करा कर, उत्तम चिकना, शीतल
और हल्का भोजन देना चाहिये। ये काम पहले करने चाहियें। अगर इन
उपायों से दाह शान्त न हो, तो रोहिणी नामक शिरा, जिसका जिक्र ऊपर किया गया है
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(५) प्यास से हुए दाह में, इच्छानुसार, पेट भर के जल पीना चाहिए अथवा
मित्री या पानी का शर्बत पीना चाहिये; अथवा दूध में ईख का रस मिला कर पीना
चाहिये।
(६) धातु-क्षय से हुए दाह को अनेक प्रकार के इष्ट विषयों से जीतना चाहिये।
मित्रों में बैठ कर दूध और मांस-रस का भोजन करना चाहिये। इस तरह के दाह में
'रक्तपित्त की विधि' से इलाज करना और चिकनी वातनाशक दवा या पथ्य देना हित है।
(७) दाह-रोग में, उप्रदवों के शान्त होने पर, शोधन करना चाहिये।
(८) प्यास और दाह की शान्ति के लिए स्नान कराने, छीट मारने और पंखा
वगैरह भिगोने में शीतल जल ही लेना चाहिए।
(९) सुश्रुत ने जो अत्यन्त सोच-फ़िक्र करने से दाह का होना लिखा है, उस
दाह का इलाज रोगी को प्यारे मित्रों में बिठाना, दूध और मांस-रस पिलाना तथा अन्य
शीतल उपचार हैं।
(१०) दाह-रोग में रोगी के पेट को साफ़ रखना बहुत ज़रूरी है।
२१ दाह-नाशक नुसखे
(१) दाह-रोगी के शरीर पर "सौं वार भुला हुआ घी" लगाने से दाह शान्त
हो जाता है। परीक्षित है।
(२) काँजी के पानी में कपड़ा भिगो कर, उससे शरीर ढक देने से दाह शान्त
हो जाता है। अगर प्यास का दाह हो, तो शीतल जल पिलाना चाहिये।
(३) जौ के सत्तू का शरीर पर लेप करने से दाह शान्त हो जाता है।
(४) बेर और आमलों को एकत्र पीस कर, शरीर पर लगाने से दाह शान्त हो
जाता है।
(५) अनार और इमली को एकत्र पीस कर, शरीर पर लगाने से दाह शान्त हो
जाता है।
(६) लामज्जक नाम की सुगन्ध घास अथवा चन्दन का लेप करने से दाह
शान्त हो जाता है।
(७) आमले और अनार के रस में "जी का सतू'' मिला कर लेप करने से
दाह मिट जाता है।
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